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Sunday, January 15, 2017

बात पर याद आ गई है बात

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आह सी धूल उड़ रही है आज
चाह-सा काफ़िला खड़ा है कहीं
और सामान सारा बेतरतीब
दर्द-सा बिन-बँधे पड़ा है कहीं
कष्ट सा कुछ अटक गया होगा
मन-सा राहें भटक गया होगा
आज तारों तले बिचारे को
काटनी ही पड़ेगी सारी रात

बात पर याद आ गई है बात

स्वप्न थे तेरे प्यार के सब खेल
स्वप्न की कुछ नहीं बिसात कहीं
मैं सुबह जो गया बगीचे में
बदहवास हो के जो नसीम बही
पात पर एक बूँद थी ढलकी
आँख मेरी मगर नहीं छलकी
हाँ, बिदाई तमाम रात आई
याद रह रह के कँपकँपाया गात

बात पर याद आ गई है बात

~ दुष्यंत कुमार


  Jan 13, 2017| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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