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Sunday, January 24, 2016

कैसे हाल लिखूँ अपना रे!

 
कैसे हाल लिखूँ अपना रे!
तब सपनों से भरी नींद थी
अब खुद नींद हुई सपना रे!

हलचल में मन सो जाता है
पर सूने में घबड़ाता है
दिन में सूरज एक जलाता
किन्तु रात में अगणित तारे!

पत्थर जल पर तर जाता है
दंश सर्प का झड़ जाता है
किन्तु डँसा तो गया अमृत से
उसके विष को कौन उतारे!

जाकर दूर, पास तुम आई
मधुर दूर से ज्यों शहनाई
परदेशी दिन-रैन बन गया
और प्राण परदेश बना रे!

जग क्या पाया, सो क्या खोया
रो-रो हँसा, कि हँस-हँस रोया
बहुत देर तक जगना-सोना
दोनो करते दृग रतनारे (लाल)!

~ श्यामनन्दन किशोर

  Jan 24, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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