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Saturday, January 23, 2016

तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई

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तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए,
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए।
*तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ू=दुखी/ व्यथित दिल को आराम; सई=कोशिश; करम=कृपा

हम अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके, कुछ कह न सके कुछ सुन न सके,
यां हम ने ज़बाँ ही खोली थी, वां आँख झुकी शर्मा भी गए।

*अर्ज़-ए-वफ़ा=वादा पूरा करने का निवेदन

अशुफ्तगी-ए-वहशत की कसम, हैरत की कसम, हसरत की कसम,
अब आप कहे कुछ या न कहे हम राज़-ए-तबस्सुम पा भी गए।

*अशुफ्तगी-ए-वहशत = दीवानगी की घबराहट; राज़-ए-तबस्सुम=मुस्कराहट का रहस्य

रुदाद-ए-गम-ए-उल्फत उन से, हम क्या कहते क्यूँकर कहते,
एक हर्फ़ न निकला होटों से और आँख में आंसूं आ भी गए।

*रुदाद-ए-गम-ए-उल्फत=प्यार के दर्द की कहानी; हर्फ़=शब्द

अरबाब-ए-जुनूँ पे फुरकत में, अब क्या कहिये क्या क्या गुजरा,
आये थे सवाद-ए-उल्फत में, कुछ खो भी गए कुछ पा भी गए।

*अरबाब-ए-जुनूँ=उन्माद की अवस्था में; फुरकत=जुदाई; सवाद-ए-उल्फत=प्यार की गली

ये रंग-ए-बहार-ए-आलम है, क्या फिक्र है तुझ को ऐ साकी,
महफ़िल तो तेरी सूनी न हुई, कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए।

इस महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफानी में,
सब ज़ाम-ब-क़फ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए।

*महफ़िल-ए-कैफ-ओ-मस्ती=ख़ुशी और आनंद की महफ़िल; अंजुमन-ए-इरफानी=ज्ञानियों की सभा; ज़ाम-ब-क़फ=जाम हाथ में लेकर बैठना

~ असरार-उल-हक़ मजाज़


  Jan 22, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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