Disable Copy Text

Thursday, January 28, 2016

हर शम्मा बुझी रफ़्ता रफ़्ता


हर शम्मा बुझी रफ़्ता रफ़्ता
हर ख्वाब लुटा धीरे धीरे
शीशा न सही, पत्थर भी न था
दिल टूट गया धीरे धीरे

बरसों में मरासिम बनते हैं
लम्हों में भला क्या टूटेंगे
तू मुझसे बिछड़ना चाहे तो
दीवार उठा धीरे धीरे
*मरासिम=रिश्ते

एहसास हुआ बर्बादी का
जब सारे घर में धूल उड़ी
आई है हमारे आँगन में
पतझड़ की हवा धीरे धीरे

दिल कैसे जला किस वक़्त जला
हमको भी पता आखिर में चला
फैला है धुंआ चुपके चुपके
सुलगी है चिता धीरे धीरे

वो हाथ पराये हो भी गए
अब दूर का रिश्ता है क़ैसर
आती है मेरी तन्हाई में
खुशबू-ऐ-हिना धीरे धीरे

~ क़ैसर-उल जाफ़री


  Jan 28, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment