कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूं
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लान्त –-
ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार ...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज
मुझे खींच कर ले गए हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहां नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश –-
जिस में कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं, तथ्य, तथ्य -– तथ्य –-
सत्य नहीं, अन्तहीन सच्चाइयां –-
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त –-
कितनी बार !~ अज्ञेय,
Aug 24, 2015| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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