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Wednesday, February 10, 2016

ये खेल होगा नहीं दुबारा



ये ज़िन्दगी
आज जो तुम्हारे
बदन की छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है

ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें
बदल रही है

बदलती शक्लों
बदलते जिस्मों में
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी
नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा

सितारे तोड़ो या घर बसाओ
अलम उठाओ या सर झुकाओ

तुम्हारी आँखों की रोशनी तक
है खेल सारा

ये खेल होगा नहीं दुबारा
ये खेल होगा नहीं दुबारा

~ निदा फ़ाज़ली


  Feb 10, 2016| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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