
बुझ गई तपते हुए दिन की अगन
साँझ ने चुपचाप ही पी ली जलन
रात झुक आई पहन उजला वसन
प्राण तुम क्यों मौन हो कुछ गुनगुनाओ
चांदनी के फूल चुन मुस्कुराओ।
एक नीली झील सा फैला अचल
आज ये आकाश है कितना सजल
चाँद जैसे रूप का उभरा कमल
रात भर इस रूप का जादू जगाओ
प्राण तुम क्यों मौन हो कुछ गुनगुनाओ।
चल रहा है चैत का चंचल पवन
बाँध लो बिखरे हुए उंदल सघन
आज लो कजरा उदास है नयन
मांग भर लो भाल पर बिंदिया सजाओ
प्राण तुम क्यों मौन हो कुछ गुनगुनाओ।
~ प. विनोद शर्मा
साँझ ने चुपचाप ही पी ली जलन
रात झुक आई पहन उजला वसन
प्राण तुम क्यों मौन हो कुछ गुनगुनाओ
चांदनी के फूल चुन मुस्कुराओ।
एक नीली झील सा फैला अचल
आज ये आकाश है कितना सजल
चाँद जैसे रूप का उभरा कमल
रात भर इस रूप का जादू जगाओ
प्राण तुम क्यों मौन हो कुछ गुनगुनाओ।
चल रहा है चैत का चंचल पवन
बाँध लो बिखरे हुए उंदल सघन
आज लो कजरा उदास है नयन
मांग भर लो भाल पर बिंदिया सजाओ
प्राण तुम क्यों मौन हो कुछ गुनगुनाओ।
~ प. विनोद शर्मा
Feb 16, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
No comments:
Post a Comment