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Saturday, February 27, 2016

बुझ गई तपते हुए दिन की अगन




बुझ गई तपते हुए दिन की अगन
साँझ ने चुपचाप ही पी ली जलन
रात झुक आई पहन उजला वसन
प्राण तुम क्यों मौन हो कुछ गुनगुनाओ
चांदनी के फूल चुन मुस्कुराओ।

एक नीली झील सा फैला अचल
आज ये आकाश है कितना सजल
चाँद जैसे रूप का उभरा कमल
रात भर इस रूप का जादू जगाओ
प्राण तुम क्यों मौन हो कुछ गुनगुनाओ।

चल रहा है चैत का चंचल पवन
बाँध लो बिखरे हुए उंदल सघन
आज लो कजरा उदास है नयन
मांग भर लो भाल पर बिंदिया सजाओ
प्राण तुम क्यों मौन हो कुछ गुनगुनाओ।

~ प. विनोद शर्मा


  Feb 16, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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