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Wednesday, October 14, 2015

मेरे दरवाज़े से अब चाँद को




मेरे दरवाज़े से अब चाँद को रुख़सत कर दो,
साथ आया है तुम्हारे जो तुम्हारे घर से
अपने माथे से हटा दो ये चमकता हुआ ताज
फेंक दो जिस्म से किरणों का सुनहरी ज़ेवर
तुम्ही तन्हा मेरे ग़म-खाने में आ सकती हो
एक मुद्दत से तुम्हारे ही लिए रखा है
मेरे जलते हुए सीने का दहकता हुआ चाँद

~ अली सरदार जाफ़री

  Oct 14, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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