दबी हुई है मेरे लबों में
कहीं पे वो आह भी जो अब तक
न शोला बन के भड़क सकी है
न अश्क-ए-बेसूद (निरर्थक आँसू) बन के निकली
घुटी हुई है नफ़स की हद में
जला दिया जो जला सकी है
न शमा बन कर पिघल सकी है
न आज तक दूद (धुआँ) बन के निकली
दिया है बेशक मेरी नज़र को वो परतौ(छवि) जो दर्द बख़्शे
न मुझ पर ग़ालिब (विजयी) ही आ सकी है
न मेरा मस्जूद (प्रार्थना) बन के निकली
~ अख़्तर-उल-ईमान
Oct 27, 2015| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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