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Friday, September 16, 2016

सूर्य की अब किसी को जरूरत नहीं



सूर्य की अब किसी को जरूरत नहीं
जुगनुओं को अंधेरे में पाला गया
फ्यूज बल्बों के अद्भुत समारोह में
रोशनी को शहर से निकाला गया

बुर्ज पर तम के झण्डे फहरने लगे
सांझ बनकर भिखारिन भटकती रही
होके लज्जित सरे आम बाजार में
सिर झुकाए-झुकाए उजाला गया।

नाम बदले खजूरों ने अपने यहां
बन गए कल्प वृक्षों के समकक्ष वे
फल उसी को मिला जो सभाकक्ष में
साथ अपने लिए फूल माला गया

उसका अपमान होता रहा हर तरफ
सत्य का पहना जिसने दुपट्टा यहां
उसका पूजन हुआ, उसका अर्चन हुआ
ओढ़ कर झूठ का जो दुशाला गया।

फिर अंधेरे के युवराज के सामने
चांदनी नर्तकी बन थिरकने लगी
राजप्रासाद की रंगशाला खुली
चांद के पात्र में जाम ढाला गया

जाने किस शाम से लोग पत्थर हुये
एक भी मुंह में आवाज़ बाकी नहीं
बांध कर कौन आंखों मे पट्टी गया
डाल कर कौन होठों पे ताला गया

वृक्ष जितने हरे थे तिरस्कृत हुये
ठूंठ थेजो यहाँ पर पुरस्कृत हुये
दंड्वत लेटकर जो चरण छू गया
नाम उसका हवा में उछाला गया

‍~ कुमार शिव


Aug 13, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

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