फिर मेरे हाथों में गुलाब की कली है,
फिर मेरे आँखों में वही उत्सुक चपलता है।
सोचा था यहाँ
तुमसे बहुत दूर
शयद सुकून मिले
....पर यहाँ लम्बे - सड़क कोठियों में
गुलाबों के पौधे हैं
और रास्ता चलते
बँगलों में लगे गुलाबों को तोड़ लेने जैसा मेरा मन है
..... और फिर तुम तो
सूना जूड़ा दिखाती हुई
अनायास सैकडों मील दूरी से पास आती हुई...।
और फिर...
फिर वही दिशा है गंतव्य
जो तुम्हारी है
फिर वही दर्शन है, आत्मीय
फिर वही विष है उपभोग्य
मेरा उपजीव्य आह!
फिर वही दर्द है - अकेलापन !
~ दुष्यंत कुमार
Aug 29, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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