ग़म नहीं हो तो ज़िंदगी भी क्या
ये ग़लत है तो फिर सही भी क्या
सच कहूँ तो हजार तकलीफ़ें
झूठ बोलूं तो आदमी भी क्या
बाँट लेती हैं मुश्किलें अपनी
हो न ऐसा तो दोस्ती भी क्या
चंद दाने, उड़ान मीलों की
हम परिंदों की ज़िंदगी भी क्या
रंग वो क्या है जो उतर जाए
जो चली जाए वो ख़ुशी भी क्या
~ हस्तीमल 'हस्ती'
Aug 20, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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