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Saturday, September 17, 2016

सोचते सोचते फिर मुझको ख़्याल आता है



सोचते सोचते फिर मुझको ख़्याल आता है
वो मेरे रंजो-मसाइब का मदावा तो न थी
रंग अफ़्शा थी मेरे दिल के खलाओं में मगर
एक औरत थी इलाजे गम दुनिया तो न थी
*रंजो-मसाइब=दुःख-दर्द; मदावा=इलाज; रंग अफ़्शा=रँग भरती; खलाओं=रिक्त स्थानों

मेरे इदराक के नासूर तो रिसते रहते
मेंरी होकर भी वो मेरे लिए क्या कर लेती
हसरत ओ यास के गम्भीर अँधेरे में भला
एक नाज़ुक सी किरण साथ कहाँ तक देती
*इदराक=सोच/अक्ल; हसरत-ओ-यास=आशा-निराशा

उसको रहना था ज़र-ओ-सीम के एवानों में
रह भी जाती वो मेरे साथ तो रहती कब तक
एक मगरूर साहूकार की प्यारी बेटी
भूख और प्यास की तकलीफ सहती कब तक
*ज़र-ओ-सीम के एवानों=सोने चांदी के महलों; मगरूर=घमंडी

एक शायर की तमन्नाओं को धोखा देकर
उसने तोड़ी है अगर प्यार भरे गीत की लय
उस पे अफ़सोस है क्यों उस पे ताज्जुब कैसा
यह मुहब्बत भी तो अहसास का इक धोखा है

~ नरेश कुमार शाद


Sep 16, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh

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