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Saturday, April 30, 2016

इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने




इक-इक पत्थर जोड़ के मैंने जो दीवार बनाई है
झाँकूँ उसके पीछे तो रुसवाई ही रुसवाई है

यूँ लगता है सोते-जागते औरों का मोहताज हूँ मैं
आँखें मेरी अपनी हैं पर उनमें नींद पराई है

देख रहे हैं सब हैरत से नीले-नीले पानी को
पूछे कौन समन्दर से तुझमें कितनी गहराई है

सब कहते हैं इक जन्नत उतरी है मेरी धरती पर
मैं दिल में सोचूँ शायद कमज़ोर मेरी बीनाई है
*बीनाई=दृष्टि

बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है

आने वाली फ़स्ल से पहले गिर गये नर्ख़ ज़मीरों के
पहला-सा है क़हत न अब वो पहले-सी महँगाई है
*नर्ख़=भाव; ज़मीर=अन्तरात्मा; क़हत=सूखा, कमी

आज हुआ मालूम मुझे इस शहर के चन्द सयानों से
अपनी राह बदलते रहना सबसे बड़ी दानाई है
*दानाई=बुद्धिमत्ता

तोड़ गये पैमाना-ए-वफ़ा इस दौर में कैसे कैसे लोग
ये मत सोच 'क़तील' कि बस इक यार तेरा हरजाई है
*पैमाना=माप/(मदिरा का) प्याला; वफ़ा=निष्ठा; हरजाई=इधर-उधर प्रेम करने वाला

~ क़तील शिफ़ाई


  Apr 24, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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