
रूप का दर्पण लिये तुम सामने जो आ खड़ी हो,
लग रहा है चांद का प्रतिबिम्ब दर्पण पर पड़ा है।
किस चितेरे ने अदा से सुभग यह मूरत गढ़ी है
देख जिसको उर्वशी ने प्यार की गीता पढ़ी है
कौन चितवन चांदनी का चोर कर घर यों गया है
कौन इसमे इंद्रधनुषी रंग सारे भर गया है।
रचा शायद जनकपुर में स्वयंवर फिर जानकी का
रहा शिव धनुष अब फिर कसौटी पर चढ़ा है
प्यार की गज़लें थीं ग़ालिब ने लिखी शायद तुम्हीं पर
खींच लाया कौन तुम सा चांद नभ से इस ज़मीं पर
और किन शिल्पीकारों ने रंग अधरों पर उतारा
चांदनी की पालकी से कौन करता है इशारा
पहन कर नीले वसन यों आ रही स्वप्नों की मलिका
लग रहा प्रणयी कहीं अभिसार करने को खड़ा है
कौन बेसुध कर रहा है दर्द के नग़मे सुना कर
राधिका के हाथ में यों प्यार की मुरली थमा कर
आज मन की बात कोई हीर, रांझा से कहेगा
लग रहा है आज की ये रात भी उजली रहेगी
जा रही नैहर से पुरवा आज प्रीतम के नगर को,
लग रहा शायद इसी से हर तरफ पहरा कड़ा है।
~ दुलीचन्द 'शशि'
Apr 11, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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