
होंठ पर पाबन्दियाँ हैं
गुनगुनाने की।
निर्जनों में जब पपीहा
पी बुलाता है।
तब तुम्हारा स्वर अचानक
उभर आता है।
अधर पर पाबन्दियाँ हैं
गीत गाने की।
चाँदनी का पर्वतों पर
खेलना रुकना
शीश सागर में झुका कर
रूप को लखना।
दर्पणों को मनाही
छबियाँ सजाने की।
ओस में भीगी नहाई
दूब सी पलकें,
श्रृंग से श्यामल मचलती
धार सी अलकें।
शिल्प पर पाबन्दियाँ
आकार पाने की।
केतकी सँग पवन के
ठहरे हुए वे क्षण,
देखते आकाश को
भुजपाश में, लोचन।
बिजलियों को है मनाही
मुस्कुराने की।
हवन करता मंत्र सा
पढ़ता बदन चन्दन,
यज्ञ की उठती शिखा सा
दग्ध पावन मन।
प्राण पर पाबन्दियाँ
समिधा चढाने की।
~ बालकृष्ण मिश्र
Apr 08, 2015|e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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