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Friday, April 8, 2016

तुम्हारे नयनों की बरसात।




तुम्हारे नयनों की बरसात।
रिम-झिम, पल-छिन, बरस रही जो,
बे-मौसम दिन-रात।

उठती आकुल आह धुआँ बन,
घिरता प्राणों का गगन-आंगन।
प्रिय की सुधि बन चमकी बिजली
सिहरे पुलकिन गात।

जीवन का सिर कितना पंकिल,
जिसमें चुपके से जाता खिल,
करुणा-सा शुचि, दुख-सा सुन्दर
यौवन का जल-जात!
*पंकिल=कीचड़ से युक्त; शुचि=शुद्ध; जल-जात=जो जल में मे उपजा हो यहां तात्पर्य कमल से है

तिमिर विरह का विकल शून्य क्षण।
क्रन्दन, जैसे नभ का गर्जन।
दो उसाँस से चलती रह-रह
थर-थर कम्पित वात।
*वात=हवा

~ श्यामनन्दन किशोर


  Apr 04, 2015|e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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