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Friday, December 11, 2015

दिवस का अंत आया, पर..



दिवस का अंत आया, पर डगर का अंत कब आया?

थका सूरज, प्रतीची की सजीली गोद में सोया,
किसी से नीड़ में बिछुडा हुआ पंछी मिला, खोया;
मगर मैं हूं कि सूनी राह पर चुपचाप चलता हूं
थके पग, पर परिश्रम के प्रहर का अंत कब आया?

लिये प्रतिबिंब कूलों का, अंधेरे में नदी सोई,
भ्रमर के प्यार की तड़पन कमल के अंक में खोई!
थकी लहरें हुईं खामोश गिर कर के किनारों पर,
दृगों में किंतु आंसू की लहर का अंत कब आया?

पवन ने पी लिया आसव कुमुद की स्निग्ध पाखों का।
किसी ने भी न पोंछा नीर मेरी क्षुब्ध आंखों का
तिमिर का विष गई पी रात, चांदी के कटोरे से
मगर मेरी निराशा के ज़हर का अंत कब आया?

*प्रतीची=पश्चिम; कूलों=किनारों; आसव=रस; स्निग्ध=चिकनी

~ गोरख नाथ


  Dec 2, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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