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Friday, December 11, 2015

जब कभी साक़ी-ए-मदहोश




जब कभी साक़ी-ए-मदहोश की याद आती है
नशा बन कर मेरी रग-रग में समा जाती है।

डर ये है टूट ना जाए कहीं मेरी तौबा
चार जानिब से घटा घिर के चली आती है।
*जानिब=ओर

जब कभी ज़ीस्त पे और आप पे जाती है नज़र
याद गुज़रे हुए ख़ैय्याम की आ जाती है।
*ज़ीस्त=ज़िंदगी; ख़य्याम=उमर ख़य्याम-फ़ारसी के प्रसिद्द कवि

मुसकुराती है कली, फूल हँसे पड़ते हैं
मेरे महबूब का पैग़ाम सबा लाती है।
*सबा=हवा

दूर के ढोल तो होते हैं सुहाने ‘दर्शन’
दूर से कितनी हसीन बर्क़ नज़र आती है।
*बर्क़=बिजली, तड़ित

~ संत दर्शन सिंह



  Nov 28, 2015| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh


Ghulam Ali sahab, Jab kabhi saki e madhosh....
https://www.youtube.com/watch?v=4MXi3IYE6nA

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