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Tuesday, June 10, 2014

एक तीखी आँच ने

एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ 
हर दिन छुआ
हाथों गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली, हर
उस हवा का आँचल छुआ

प्रहर कोई भी नहीं बीता, अछूता
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों
मैं उबलता रहा 
पानी-सा परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर यों
खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन कर उड़ चुका,
रीता, भटकता,
छानता आकाश

आह! कैसा कठिन
कैसा पोच मेरा भाग,
आग चारों और मेरे
आग केवल आग,
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
ज़िंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे।

~ दुष्यंत कुमार

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