Disable Copy Text

Sunday, June 8, 2014

क्या टूटा है अन्दर अन्दर



क्या टूटा है अन्दर अन्दर क्यों चेहरा कुम्हलाया है
तनहा तनहा रोनेवालो कौन तुम्हें याद आया है

चुपके चुपके सुलग रहे थे, याद में उनकी दीवाने
इक तारे ने टूट के यारो, क्या उनको समझाया है

रंग बिरंगी इस महफ़िल में, तुम क्यूं इतने चुप चुप हो
भूल भी जाओ पागल लोगो, क्या खोया क्या पाया है

शेर कहाँ हैं खून है दिल का, जो लफ़्ज़ों में बिख़रा है
दिल के ज़ख्म दिखा कर हमने, महफ़िल को गरमाया है

अब ‘शहज़ाद’ ये झूठ न बोलो, वो इतने बेदर्द नहीं
अपनी चाहत को भी परखो, गर इलज़ाम लगाया है

~ फरहत शाहज़ाद

No comments:

Post a Comment