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Thursday, June 12, 2014

शिशिर कणों से लदी हुई

शिशिर कणों से लदी हुई,
कमली के भीगे हैं सब तार,
चलता है पश्चिम का मारुत,
ले कर शीतलता का भार। 

भीग रहा है रजनी का वह,
सुंदर कोमल कवरी-भार,
अरुण किरण सम, कर से छू लो,
खोलो प्रियतम! खोलो द्वार।

धूल लगी है, पद काँटों से
बिंधा हुआ, है दु:ख अपार,
किसी तरह से भूला भटका
आ पहुंचा हूँ तेरे द्वार।

डरो न इतना धूल धूसरित
होगा नहीं तुम्हारा द्वार
धो डाले हैं इनको प्रियवर 
इन आँखों से आँसू ढार

मेरे धूलि लगे पैरों से,
इतना करो न घृणा प्रकाश,
मेरे ऐसे धूल कणों से,
कब तेरे पद को अवकाश!

पैरों ही से लिपटा लिपटा
कर लूँगा निज पद निर्धार,
अब तो छोड़ नहीं सकता हूँ,
पाकर प्राप्य तुम्हारा द्वार।

सुप्रभात मेरा भी होवे,
इस रजनी का दु:ख अपार,
मिट जावे जो तुमको देखूँ,
खोलो प्रियतम! खोलो द्वार।।

~ जय शंकर प्रसाद 
  June 12, 2014

2 comments:

  1. Poem is by Ram kumar Varma not Jai Shankar Prasad

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    1. आपकी टिप्पणी के लिये शुक्रिया, लेकिन यह कविता प्रसाद की है:
      कविता 'खोलो द्वार' शीर्षक से लिखी गयी थी, - https://books.google.com/books?id=U6fgyGMGPJsC&pg=PT288&lpg=PT288&dq=शिशिर+कणों+से+लदी

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