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Tuesday, June 10, 2014

वह इक आम सी लड़की


वह इक आम सी लड़की
रोज सुबह सवरे
चाय का प्‍याला पीते हुए
कुछ सोचती जाती है
अपने बारे में
अपने सपनों के बारे में ...

वह सोचती रहती है
दुनिया जहान के बारे में
कालेज की राह में
घूरते लड़कों के बारे में
पड़ोस के उस लड़के के बारे में
जो उस बहुत भाता है
उसे देखने का मन तो करता है
लेकिन कभी कभार ही दिखता है
वह इक आम सी लड़की
गुपचुप सी बैठी
चाय के प्‍याले को देखती रहती है
चाय की चुस्कियों के संग
वह डालती रहती है अपने सपनों में रंग
ना जाने कितने रंगों से
सजाती है अपने सपने का संसार

वह इक आम सी लड़की
ना जाने कब से गुम है अपने ख्‍यालों में
दफत:अन, किचन से पुकारती है मां
हड़बड़ाती हुई उठती है
और छलक जाती है प्‍याले से चाय

कभी दामन पे चाय का दाग सहेजे
कभी बिखरे सपनों को दामन में समेटे
हर रोज दौड़ती रहती है
आंगन से किचन
और किचन से आंगन
वह इक आम सी लड़की
चाय के प्‍याले
और किचन के बीच
ना जाने कितनी दूरी है
वहां ही कैद हो जाती है
जिंदगी भर दौड़ती रह जाती है
वह इक आम सी लड़की

~ शाहिद अख्तर

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