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Wednesday, June 11, 2014

परख फज़ा की






परख फज़ा की, हवा का जिसे हिसाब भी है
वो शख्स साहिबे फन भी है, कामयाब भी है

जो रूप आप को अच्छा लगे वो अपना लें
हमारी शख्सियत कांटा भी है ,गुलाब भी है

हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहीं
हमारे जिस्म में गंगा भी है ,चनाब भी है

हमारा दौर अँधेरों का दौर है ,लेकिन
हमारे दौर की मुट्ठी में आफताब भी है

किसी ग़रीब की रोटी पे अपना नाम न लिख
किसी ग़रीब की रोटी में इन्क़लाब भी है

मेरा सवाल कोई आम सा सवाल नहीं
मेरा सवाल तेरी बात का जवाब भी है

इसी ज़मीन पे हैं आख़री क़दम अपने
इसी ज़मीन में बोया हुआ शबाब भी है 




~ कँवल ज़िआई

1/13/2014

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