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Sunday, June 8, 2014

क्यों अक्सर भ्रम में जीता है


उजियारे का साथी होकर, क्यों अक्सर तम में जीता है।
प्रिये! तुम्हारा मन ये जाने, क्यों अक्सर भ्रम में जीता है।।

गंगा के निर्मल से जल से, जितनी दूरी रखें किनारे।
ओ मेरे हमदम! ओ साथी, मैं उतना ही पास तुम्हारे।।
मैंने इन आँखों से देखीं सभी तुम्हारी दहती रातें।
अपने मन पर झेलीं मैंने आंसू की रिमझिम बरसातें।।
जिस मौसम में तुम जीतीं, मन ऐसे मौसम में जीता है।
प्रिये! तुम्हारा मन ये जाने, क्यों अक्सर भ्रम में जीता है।।

जिसके भीतर तुम बसते हो, वो मन है पाषाण नहीं है।
मधुरे! इस चाहत का जग में कोई और प्रमाण नहीं है।।
मेरे सपनों की दुनिया में हर पल केवल साथ तुम्हारा।
मन की आँखों से तो देखो, हाथों में है हाथ तुम्हारा।।
तुम खुश हो तो मन भी खुश, ग़म है तो ग़म में जीता है।
प्रिये! तुम्हारा मन ये जाने, क्यों अक्सर भ्रम में जीता है।।

तुमको अपनी पूनम देकर, मैं मावस में ढल सकता हूँ।
और तुम्हारे हर दीपक की बाती बनकर जल सकता हूँ।।
ग़म के हाथों का हर दर्पन, तुमको चकनाचूर मिलेगा।
और तुम्हारी सब खुशियों के माथे पर सिन्दूर मिलेगा।।
मेरे गीतों का हर अक्षर जिसकी सरगम में जीता है।
प्रिये! तुम्हारा मन ये जाने क्यों अक्सर भ्रम में जीता है।।

मेरी सांस करेंगीं पूरा, जीवन की जो भी शर्तें है।
मेरी ये पलकें ढक लेंगी दुःख की जितनी भी पर्तें हैं।।
चन्दन के सतियों में लिपटी तुमको हर चौखट दे दूंगा।
तूफानों को मैं पी लूँगा, तुमको सारा तट दे दूंगा।।
मन तो सदा तुम्हारी ही पायल की छमछम में जीता है।
प्रिये! तुम्हारा मन ये जाने क्यों अक्सर भ्रम में जीता है।।

~ कुमार पंकज

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