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Wednesday, June 11, 2014

यही आरज़ू थी दिल की

 

यही आरज़ू थी दिल की कि क़रीब यार होता
और हज़ार जाँ से क़ुरबाँ मैं हज़ार बार होता

न सही अगर नहीं था बुत-ए-बेवफ़ा पे क़ाबू
यही बस था मेरे बस में दिल-ए-बेक़रार होता

जो पिलाना था पिलाता कोई ऐसी मय ऐ साक़ी
जिसे पी के ताब महशर न मैं होशियार होता

हर एक आफ़तों का करता मैं ख़ुशी से ख़ैर-मक़दम
मैं अलम को भूल जाता जो तू ग़मगुसार होता

तुझे लुत्फ़-ए-दीद मिलता मुझे लुत्फ़-ए-मर्ग क़ातिल
मैं हमेशा मरता रहता कोई ऐसा वार करता

~ जद्दन बाई


1/25/2014

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