यही आरज़ू थी दिल की कि क़रीब यार होता
और हज़ार जाँ से क़ुरबाँ मैं हज़ार बार होता
न सही अगर नहीं था बुत-ए-बेवफ़ा पे क़ाबू
यही बस था मेरे बस में दिल-ए-बेक़रार होता
जो पिलाना था पिलाता कोई ऐसी मय ऐ साक़ी
जिसे पी के ताब महशर न मैं होशियार होता
हर एक आफ़तों का करता मैं ख़ुशी से ख़ैर-मक़दम
मैं अलम को भूल जाता जो तू ग़मगुसार होता
तुझे लुत्फ़-ए-दीद मिलता मुझे लुत्फ़-ए-मर्ग क़ातिल
मैं हमेशा मरता रहता कोई ऐसा वार करता
~ जद्दन बाई
1/25/2014
No comments:
Post a Comment