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Wednesday, June 11, 2014

किसी तपते सफ़र को भीगती


किसी तपते सफ़र को भीगती सी शाम दे जाऊं
किसी आधी -अधूरी बात को अंजाम दे जाऊं

मेरी तस्वीर भी रख ले वो अपनी शामो- सुबहों मे
किसी अपने को घर बैठे, ज़रा सा काम दे जाऊं

बहुत मुमकिन है वो शायद अभी तक रास्ता देखे
किसी रहगीर के हाथों उसे पैग़ाम दे जाऊं

समंदर के किनारे हमने अक्सर प्यास देखी है
किसी के सूखे होंठों को खुशी का जाम दे जाऊं

रहा हो ग़म कोई भी पर सदा हंसती रहीं आंखें
मैं उसकी इस हुनरमंदी पे कुछ ईनाम दे जाऊं

न खो जाये कहीं कल वो यहाँ अपनी ही गलियों में
गली के मोड़ पर अपना कहीं भी नाम दे जाऊं

~ प्रवीण पंडित


2/16/2014

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