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Wednesday, June 11, 2014

दरिया की हवा तेज़ थी

दरिया की हवा तेज़ थी, कश्ती थी पुरानी
रोका तो बहुत दिल ने मगर एक न मानी

मैं भीगती आँखों से उसे कैसे हटाऊ
मुश्किल है बहुत अब्र में दीवार उठानी
*अब्र=घटा

निकला था तुझे ढूंढ़ने इक हिज्र का तारा
फिर उसके ताआकुब में गयी सारी जवानी
*हिज्र=जुदाई; ताआकुब=पीछा

कहने को नई बात हो तो फिर से सुनाएं
सौ बार ज़माने ने सुनी है ये कहानी

किस तरह मुझे होता गुमा तर्के-वफ़ा का
आवाज़ में ठहराव था, लहजे में रवानी
*गुमा=अंदाज़

अब मैं उसे कातिल कहूँ 'अमज़द' कि मसीहा
क्या ज़ख्मे-हुनर छोड़ गया अपनी निशानी

~ अमज़द इस्लाम अमज़द
  e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh 

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