दरिया की हवा तेज़ थी
दरिया की हवा तेज़ थी, कश्ती थी पुरानी
रोका तो बहुत दिल ने मगर एक न मानी
मैं भीगती आँखों से उसे कैसे हटाऊ
मुश्किल है बहुत अब्र में दीवार उठानी
*अब्र=घटा
निकला था तुझे ढूंढ़ने इक हिज्र का तारा
फिर उसके ताआकुब में गयी सारी जवानी
*हिज्र=जुदाई; ताआकुब=पीछा
कहने को नई बात हो तो फिर से सुनाएं
सौ बार ज़माने ने सुनी है ये कहानी
किस तरह मुझे होता गुमा तर्के-वफ़ा का
आवाज़ में ठहराव था, लहजे में रवानी
*गुमा=अंदाज़
अब मैं उसे कातिल कहूँ 'अमज़द' कि मसीहा
क्या ज़ख्मे-हुनर छोड़ गया अपनी निशानी
~ अमज़द इस्लाम अमज़द
e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
No comments:
Post a Comment