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Tuesday, June 10, 2014

मेरे सपने बहुत नहीं हैं


 


मेरे सपने बहुत नहीं हैं

छोटी-सी अपनी दुनिया हो,
दो उजले-उजले से कमरे
जगने को-सोने को,
मोती-सी हों चुनी किताबें
शीतल जल से भरे सुनहले प्‍यालों जैसी
ठण्‍डी खिड़की से बाहर धीरे हँसती हो
तितली-सी रंगीन बगीची;
छोटा लॉन स्‍वीट-पी जैसा,
मौलसिरी की बिखरी छितरी छाँहों डूबा।

हम हों, वे हों
काव्‍य और संगीत सिन्‍धु में डूबे-डूबे
प्‍यार भरे पंछी से बैठे
नयनों से रस नयन मिलाए,
हिल-मिलकर करते हों
मीठी-मीठी बातें
उनकी लटें हमारे कन्‍धों पर, मुख पर
उड़ उड़ जाती हों,
सुशर्म बोझ से दबे हुए झोंकों से हिल कर।

अब न बहुत हैं सपने मेरे
मैंने इस मंजिल पर आ कर
सब कुछ जीवन में भर पाया।

~ गिरिजा कुमार माथुर
| e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

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