फ़कीराना तबीयत थी बहुत बेबाक लहजा था
कभी मुझमें भी हँसता खेलता इक शख्स रहता था
बगूले ही बगूले हैं मिरी वीरान आँखों में
कभी इन रेगज़ारों में कोई दरिया भी बहता था
तुझे जब देखता हूँ तो ख़ुद अपनी याद आती है
मिरा अंदाज़ हंसने का कभी तेरे ही जैसा था
कभी परवाज़ पर मेरी हज़ारों दिल धड़कते थे
दुआ करता था कोई तो कोई ख़ुशबाश कहता था
कभी ऐसे ही छाईं थीं गुलाबी बदलियाँ मुझ पर.
कभी फूलों की सुहबत से मिरा दामन भी महका था
मैं था जब कारवां के साथ तो गुलज़ार थी दुनिया
मगर तन्हा हुआ तो हर तरफ सहरा ही सहरा था
बस इतना याद है सोया था इक उम्मीद सी लेकर
लहू से भर गयीं आंखें न जाने ख़्वाब कैसा था
~ मनीष शुक्ल
Oct 25, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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