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Tuesday, April 7, 2015

कनुप्रिया: आम्र-बौर का गीत - 2

डॉ. धर्मवीर भारती

25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद में जन्मे डॉ. भारती ने 1956 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पीएचडी की। बाद के वर्ष उनके साहित्यिक जीवन के सबसे रचनात्मक वर्ष रहे। वह इस दौरान ‘अभ्युदय’ और ‘संगम’ के उप-संपादक रहे। ‘धर्मयुग’ में प्रधान संपादक रहने के दौरान डॉ. भारती ने 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की रिपोर्ताज भी की।

डॉ. भारती की पुस्तक ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ लघुकथाओं को पाठकों के बीच रखने की एक अलहदा शैली का नमूना मानी जाती है। ‘अंधायुग’ भी डॉ. भारती की सर्वाधिक चर्चित कृतियों में से एक है। इसे इब्राहिम अल्काजी, एम के. रैना, रतन थियम और अरविंद गौर जैसे दिग्गज रंगकर्मी नाटक के रूप में पेश कर चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘मुर्दों का गाँव’, ‘स्वर्ग और पृथ्वी’, ‘चाँद और टूटे हुए लोग’ और ‘बंद गली का आखिरी मकान’ जैसी पुस्तकें भी लिखीं।
डॉ. भारती की पुस्तक ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ लघुकथाओं को पाठकों के बीच रखने की एक अलहदा शैली का नमूना मानी जाती है। ‘अंधायुग’ भी डॉ. भारती की सर्वाधिक चर्चित कृतियों में से एक है। इसे इब्राहिम अल्काजी, एम के. रैना, रतन थियम और अरविंद गौर जैसे दिग्गज रंगकर्मी नाटक के रूप में पेश कर चुके हैं। इसके अलावा उन्होंने ‘मुर्दों का गाँव’, ‘स्वर्ग और पृथ्वी’, ‘चाँद और टूटे हुए लोग’ और ‘बंद गली का आखिरी मकान’ जैसी पुस्तकें भी लिखीं।


पर मेरे प्राण
यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही
बावली लड़की हूँ न जो – कदम्ब के नीचे बैठ कर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो
तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने धुटने कस
मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ
पर शाम को जब घर आती हूँ तो
निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में
अपनी उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली-सी उनहें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को
चारों ओर देख कर धीमे-से
चूम लेती हूँ।
रात गहरा आयी है
और तुम चले गये हो
और मैं कितनी देर तक बाँह से
उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो
और मैं लौट रही हूँ,
हताश, और निष्फल
और ये आम के बौर के कण-कण
मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं।
पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे
कि देर ही में सही
पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसी लिए न कि इतना लम्बा रास्ता
कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों और काँकरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं!
यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं
तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती
तो मेरे साँवरे -
लाज मन की भी होती है
एक अज्ञात भय,
अपरिचित संशय,
आग्रह भरा गोपन,
और सुख के क्षण
में भी घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी -
फिर भी उसे चीर कर
देर में ही आऊँगी प्राण,
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं कर दोगे?

~ धर्मवीर भारती

  Oct 25, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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