पर मेरे प्राण
यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही
बावली लड़की हूँ न जो – कदम्ब के नीचे बैठ कर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को
महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो
तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने धुटने कस
मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ
पर शाम को जब घर आती हूँ तो
निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में
अपनी उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली-सी उनहें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को
चारों ओर देख कर धीमे-से
चूम लेती हूँ।
रात गहरा आयी है
और तुम चले गये हो
और मैं कितनी देर तक बाँह से
उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो
और मैं लौट रही हूँ,
हताश, और निष्फल
और ये आम के बौर के कण-कण
मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं।
पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे
कि देर ही में सही
पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसी लिए न कि इतना लम्बा रास्ता
कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों और काँकरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं!
यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं
तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती
तो मेरे साँवरे -
लाज मन की भी होती है
एक अज्ञात भय,
अपरिचित संशय,
आग्रह भरा गोपन,
और सुख के क्षण
में भी घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी -
फिर भी उसे चीर कर
देर में ही आऊँगी प्राण,
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं कर दोगे?
~ धर्मवीर भारती
Oct 25, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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