रोशनी के पाँव छूकर
लौट आई कामनाएँ
बाँसुरी का स्वर बनी हैं
नव प्रणय की याचनाएँ।
कौन सहला कर गया है
अमलतासी छाँव को
रेत के टीले बनाते
आँधियों के गाँव को
जी पड़े औंधे दिवस सब
चल पड़ी संभावनाएँ।
ओस बनकर बिखरती हूँ
पिघलती हूँ काँच-सी
बर्फ़ कैसे हो सकूँगी
दहकती हूँ आँच-सी
भूल जाने को कहो मत
बन चुकी अवधारणाएँ।
छोड़कर सपने पुरातन
समय निर्भय हो गया
गीत, सुर, लय, ताल, रस से
आज परिचय हो गया
रास्ता तकने लगी हैं
अनछुई संवेदनाएँ।
~ मधु प्रसाद
Aug 10, 2011| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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