अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की जंग में शामिल रहे और कई साल जेल में भी रहे. All India Muslim League में रह कर हसरत मोहानी ने सब से पहले आज़ादी-ए-कामिल (Complete Independence) की मांग की. हसरत मोहानी भारतीय कौम्युनिस्ट पार्टी (CPI ) के संस्थापकों में से एक थे.
आज़ादी के बाद उस वक़्त के कुछ बड़े शायर, मसलन जोश मलीहाबादी, नासिर काज़मी पाकिस्तान चले गए लेकिन हसरत मोहानी ने भारत में रहना पसंद किया और भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली Constituent Assembly के सदस्य भी रहे. हसरत मोहानी की मृत्यु १३ मई, १९५१ को, लखनऊ में हुई.
चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है
बा-हज़ाराँ इज़्तराब-ओ-सद हज़ाराँ इश्तियाक़
तुझसे वो पहले-पहल दिल का लगाना याद है
तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दाँतों में वो उँगली दबाना याद है
खेंच लेना वो मेरा परदे का कोना दफ़अतन
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद है
जानकार सोता तुझे वो क़स्दे पा-बोसी मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कराना याद है
तुझको जब तन्हा कभी पाना तो अज़ राहे-लिहाज़
हाले दिल बातों ही बातों में जताना याद है
ग़ैर की नज़रों से बच कर सबकी मरज़ी के ख़िलाफ़
वो तेरा चोरी छिपे रातों को आना याद है
आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्रे-फ़िराक़
वो तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है
देखना मुझको जो बरगश्ता तो सौ-सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर ख़ुद रूठ जाना याद है
चोरी-चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है
बावजूदे-इद्दआ-ए-इत्तिक़ा ‘हसरत’ मुझे
आज तक अहद-ए-हवस का वो ज़माना याद है
~ हसरत मोहानी
Oct 5, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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