आख़िरी कोशिश भी कर के देखते
फिर उसी दर से गुज़र के देखते
गुफ़्तगू का कोई तो मिलता सिरा
फिर उसे नाराज़ कर के देखते
काश जुड़ जाता वो टूटा आईना
हम भी कुछ दिन बन संवर के देखते
रास्ते को ही ठिकाना कर लिया
कब तलक हम ख़्वाब घर के देखते
काश मिल जाता कहीं साहिल कोई
हम भी कश्ती से उतर के देखते
हो गया तारी संवरने का नशा
वरना ख्वाहिश थी बिखर के देखते
दर्द ही गर हासिल ए हस्ती है तो
दर्द की हद से गुज़र के देखते
~ मनीष शुक्ल
Oct 25, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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