पुलक पुलक उर, सिहर सिहर तन,
आज नयन आते क्यों भर-भर।
सकुच सलज खिलती शेफाली;
अलस मौलश्री डाली डाली;
बुनते नव प्रवाल कुजों में,
रजत श्याम तारों से जाली;
शिथिल मधु-पवन गिन-गिन मधु-कण,
हरसिंगार झरते हैं झर झर।
आज नयन आते क्यों भर भर ?
पिक की मधुमय वंशी बोली,
नाच उठी सुन अलिनी भोली;
अरुण सजग पाटल बरसाता,
तम पर मृदु पराग की रोली;
मृदुल अंक धर, दर्पण सा सर,
आज रही निशि दृग-इन्दीवर !
आज नयन आते क्यों भर भर ?
आँसू बन बन तारक आते,
सुमन हृदय में सेज बिछाते;
कम्पित वानीरों के बन भी,
रह रह करुण विहाग सुनाते,
निद्रा उन्मन, कर कर विचरण,
लौट रही सपने संचित कर !
आज नयन आते क्यों भर भर ?
जीवन-जल-कण से निर्मित सा,
चाह-इन्द्रधनु से चित्रित सा,
सजल मेघ सा धूमिल है जग,
चिर नूतन सकरुण पुलकित सा;
तुम विद्युत् बन, आओ पाहुन !
मेरी पलकों में पग धर धर !
आज नयन आते क्यों भर भर ?
~ महादेवी वर्मा
Apr 17, 2011| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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