वो भी क्या लोग थे आसान थी राहें जिनकी
बन्द आँखें किये इक सिम्त चले जाते थे
अक़्ल-ओ-दिल ख़्वाब-ओ-हक़ीक़त की न उल्झन न ख़लिश
मुख़्तलिफ़ जलवे निगाहों को न बहलाते थे
इश्क़ सादा भी था बेख़ुद भी जुनूँपेशा भी
हुस्न को अपनी अदाओं पे हिजाब आता था
फूल खिलते थे तो फूलों में नशा होता था
रात ढलती थी तो शीशों पे शबाब आता था
चाँदनी कैफ़असर रूहअफ़्ज़ा होती थी
अब्र आता था तो बदमस्त भी हो जाते थे
दिन में शोरिश भी हुआ करती थी हहंगामे भी
रात की गोद में मूँह ढाँप के सो जाते थे
नर्म रौ वक़्त के धारे पे सफ़ीने थे रवाँ
साहिल-ओ-बह्र के आईन न बदलते थे कभी
नाख़ुदाओं पे भरोसा था मुक़द्दर पे यक़ीं
चादर-ए-आब से तूफ़ान न उबलते थे कभी
हम के तूफ़ानों के पाले भी सताये भी हैं
बर्क़-ओ-बाराँ में वो ही शम्में जलायें कैसे
ये जो आतिशकदा दुनिया में भड़क उट्ठा है
आँसुओं से उसे हर बार बुझायें कैसे
कर दिया बर्क़-ओ-बुख़ारात ने महशर बर्पा
अपने दफ़्तर में लिताफ़त के सिवा कुछ भी नहीं
घिर गये वक़्त की बेरहम कशाकश में मगर
पास तहज़ीब की दौलत के सिवा कुछ भी नहीं
ये अंधेरा ये तलातुम ये हवाओं का ख़रोश
इस में तारों की सुबुक नर्म ज़िया क्या करती
तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त से कड़वा हुआ आशिक़ का मिज़ाज
निगाह-ए-यार की मासूम अदा क्या करती
सफ़र आसान था तो मन्ज़िल भी बड़ी रौशन थी
आज किस दर्जा पुरअसरार हैं राहें अपनी
कितनी परछाइयाँ आती हैं तजल्ली बन कर
कितने जल्वों से उलझती हैं निगाहें अपनी
~ आले अहमद सुरूर
Dec 17, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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