रसोईघरों में तीन सौ साठ अंशों की व्यस्तता के फलक में
हर लम्हा-हर एक छोटे से कोण में मौजूद दिखतीं स्त्रियाँ
नमक-मिर्च, शक्कर, हल्दी-धनिया और
मसालों की खुशबुओं का अनुपात चुटकियों में
अपने अंदाज से साधती
वह भी गुनगुनाते हुए बदस्तूर
चाहे बच्चों की भूख-प्यास का समय हो या
मर्दों की तलब या बुज़ुर्गों के खाँसने में छुपे हुए इशारे
इन सबके अर्थ समाहित थे उनके अंदाजों की दिव्य-दृष्टि में
सारी स्त्रियों के अंदर
अंदाज की मशीन हमेशा ठीक-ठाक काम करती रही
और तो और उसमें लगातार संसाधित होते रहे
चूल्हे की आँच के तापमान से लेकर
मौसमों के पूर्वानुमान तक के आँकड़े
इस तरह तय समय पर आते रहे
एक के बाद एक वसंत इस धरती पर
और धीरे-धीरे भरता गया आकाश स्त्रियों के अंदाज से बने रंगों के इंद्रधनुष से
कई-कई बार तो हैरानी होती
कैसे कभी थर्मामीटर और माइक्रोवेव-ओवन जैसे कई उपकरण भी हुए फेल
परदे के पीछे रहकर महसूस करके अंदाज लगा लेने के उस नायाब हुनर के आगे
जो गुँजाता था व्योम में सधे हुए हाथ के करिश्मे का गान
कहना मुश्किल कहाँ से प्रवेश करती थी सटीक अंदाजों की अजस्र धारा अपने-आप
सास-माँ से लेकर तो बहू-बेटी तक की देहों के भीतर अनंत काल से
दुनिया के बारे में
कोई कहती नज़र से पहचानती हैं हम सबको
कोई कहती आवाज़ के लहज़े से
कोई कहती चाल-ढाल से
कोई कहती पता नहीं कैसे मगर हाँ
अपने-आप हो जाता है अंदाजा
यही आख़िरी बात
जो समीकरण है
अपने-आप लग जाने वाले अंदाजों के गणित का
इसी में दुनिया के ख़ूबसूरत बने होने का राज़ छुपा हुआ है ।
~ राग तेलंग
May 22, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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