कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।
जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।
लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।
ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।
~ दुष्यंत कुमार
Apr 13, 2015 | e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
No comments:
Post a Comment