किताब: 'निर्वासित बाहर-भीतर' (तसलीमा की जीवनी)
नोट: तसलीमा के शब्दों में, 'निर्वासित बाहर-भीतर' काव्य संग्रह में संकलित सभी कविताएं उस दौर में लिखी गई थीं, जब रूद्र से मेरा रिश्ता, बस, टूटने- टूटने को था । 'नियति' कविता भी, रूद्र की किसी हरकत पर ही लिखी गई थी ।
हर रात मेरे बिस्तर पर आकर लेट जाता है, एक नपुंसक मर्द !
आंखें
अधर
चिबुक
पागलों की तरह चूमते-चूमते,
अपनी दोनों मुट्ठियों में भर लेता है-स्तन!
मुंह में भरकर चूसता रहता है ।
मारे प्सास के जाग उठता है, मेरा रोम-रोम
मांगते हुए सागर भर पानी, छटपटाता रहता है ।
बालों के अरण्य में अपनी बेचैन उंगलियां,
उंगलियों की दाह
मुझमें सिर से पांव तक अंगार भरकर,
खेलता है उछालने-लपकने का खेल!
उन पलों में मेरी आधी-अधूरी देह
उस मर्द का तन-बदन कर डालती है चकनाचूर,
मांगते हुए नदी भर पानी, छटपटाता रहता है ।
सिरहाने पूस की पूर्णिमा !
रात बैठी रहती है जगी-जगी
उसकी गोद में सिर रखकर,
करके मुझे उत्तप्त,
बनाकर मुझे अंगार
नपुंसक-नामर्द सो जाता है बेसुध!
उन पलों में मेरी समूची देह में जगी-जगी प्यास,
उस सोए हुए मर्द की मुर्दा देह छूकर,
मांगते हुए बून्द भर पानी, रोती रहती है ।
~ तसलीमा नसरीन
Nov 18, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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