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Tuesday, April 7, 2015

किसी को उदास देख कर

Sahir Ludhiyanvi (1921- 1980)

तुम्हें उदास सी पाता हूँ मैं कई दिन से
न जाने कौन से सदमे उठा रही हो तुम
वो शोख़ियाँ, वो तबस्सुम, वो कहकहे न रहे
हर एक चीज़ को हसरत से देखती हो तुम
छुपा छुपा के ख़मोशी में अपनी बेचैनी
ख़ुद अपने राज़ की तशहीर बन गई हो तुम

मेरी उम्मीद अगर मिट गई तो मिटने दो
उम्मीद क्या है बस एक पेशोपस है कुछ भी नहीं
मेरी हयात की ग़मगीनियों का ग़म न करो
ग़मे हयात-ग़मे यक नफ़स है कुछ भी नहीं
तुम अपने हुस्न की रानाइओं पे रहम करो
वफ़ा फ़रेब है तूले हवस है कुछ भी नहीं

मुझे तुम्हारे तग़ाफ़ुल से क्यूं शिकायत हो
मेरी फ़ना मेरे एहसास का तक़ाज़ा है
मैं जानता हूँ के दुनिया का ख़ौफ़ है तुमको
मुझे ख़बर है ये दुनिया अजीब दुनिया है
यहाँ हयात के पर्दे में मौत चलती है
शिकस्त साज़ की आवाज़ रूहे नग़्मा है

मुझे तुम्हारी जुदाई का कोई रंज नहीं
मेरे ख़याल की दुनिया में मेरे पास हो तुम
ये तुमने ठीक कहा है तुम्हें मिला न करूँ
मगर मुझे ये बता दो कि क्यूँ उदास हो तुम
ख़फ़ा न होना मेरी जुर्रत-ए-तख़ातब पर
तुम्हें ख़बर है मेरी ज़िंदगी की आस हो तुम

मेरा तो कुछ भी नहीं है मैं रो के जी लूँगा
मगर ख़ुदा के लिए तुम असीर-ए-ग़म न रहो
हुआ ही क्या जो ज़माने ने तुमको छीन लिया
यहाँ पे कौन हुआ है किसी का सोचो तो
मुझे क़सम है मेरी दुख भरी जवानी की
मैं ख़ुश हूँ मेरी मोहब्बत के फूल ठुकरा दो

मैं अपनी रूह की हर इक ख़ुशी मिटा लूँगा
मगर तुम्हारी मसर्रत मिटा नहीं सकता
मैं ख़ुद को मौत के हाथों में सौंप सकता हूँ
मगर ये बार-ए-मसाइब उठा नहीं सकता
तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म हैं मुझे
निजात जिनसे मैं एक लमहा पा नहीं सकता

ये ऊँचे ऊँचे मकानों की ड्योढियों के तले
हर एक गाम पे भूके भिकारियों की सदा
हर एक घर में ये इफ़्लास और भूक का शोर
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आह-ओ-बुका
ये कारख़ानों में लोहे का शोर-ओ-गुल जिसमें
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा
   ये शाहराहों पे रंगीन साडियों की झलक
ये झोंपड़ियों में ग़रीबों की बेकफ़न लाशें
ये माल रोड पे कारों की रेल पेल का शोर
ये पटरियों पे ग़रीबों के ज़र्दरू बच्चे
गली गली में ये बिकते हुए जवाँ चेहरे
हसीन आँखों में अफ़्सुर्दगी सी छाई हुई

ये जंग और ये मेरे वतन के शोख़ जवाँ
खरीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी
ये बात बात पे कानूनो जाब्ते की गिरफ़्त
ये जिल्‍लतें ये ग़ुलामी ये दौर-ए-मजबूरी
ये ग़म बहुत हैं मेरी ज़िंदगी मिटाने को
उदास रह के मेरे दिल को और रंज न दो

~ साहिर लुधियानवी

  Oct 9, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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