हम जीवन के महाकाव्य हैं
केवल छ्न्द प्रसंग नहीं हैं।
कंकड़-पत्थर की धरती है
अपने तो पाँवों के नीचे
हम कब कहते बन्धु! बिछाओ
स्वागत में मखमली गलीचे
रेती पर जो चित्र बनाती
ऐसी रंग-तरंग नहीं है।
तुमको रास नहीं आ पायी
क्यों अजातशत्रुता हमारी
छिप-छिपकर जो करते रहते
शीतयुद्ध की तुम तैयारी
हम भाड़े के सैनिक लेकर
लड़ते कोई जंग नहीं हैं।
कहते-कहते हमें मसीहा
तुम लटका देते सलीब पर
हंसें तुम्हारी कूटनीति पर
कुढ़ें या कि अपने नसीब पर
भीतर-भीतर से जो पोले
हम वे ढोल-मृदंग नहीं है।
तुम सामुहिक बहिष्कार की
मित्र! भले योजना बनाओ
जहाँ-जहाँ पर लिखा हुआ है
नाम हमारा, उसे मिटाओ
जिसकी डोर हाथ तुम्हारे
हम वह कटी पतंग नहीं है।
~ देवेन्द्र शर्मा इन्द्र
Jul 26, 2011| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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