
दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों
आँखों की सुर्ख़ लहर है मौज-ए-सुपरदगी
ये क्या ज़रूर है के अब अंगड़ाइयाँ भी हों
*मौज-ए-सुपरदगी=ख़ुद को सौंपने की इच्छा
हर हुस्न-ए-सादा लौ न दिल में उतर सका
कुछ तो मिज़ाज-ए-यार में गहराइयाँ भी हों
*हुस्न-ए-सादा लौ=सदा दिल
दुनिया के तज़किरे तो तबियत ही ले बुझे
बात उस की हो तो फिर सुख़न आराइयाँ भी हों
*तज़किरे=बात बनाने की कला; सुख़न आराइयाँ= किस्से
पहले पहल का इश्क़ अभी याद है "फ़राज़"
दिल ख़ुद ये चाहता है के रुस्वाइयाँ भी हों
*रुस्वाइयाँ=बदनामियाँ
~ अहमद फ़राज़
May 11, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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