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Sunday, April 5, 2015

दिल भी बुझा हो शाम की




दिल भी बुझा हो शाम की परछाइयाँ भी हों
मर जाइये जो ऐसे में तन्हाइयाँ भी हों

आँखों की सुर्ख़ लहर है मौज-ए-सुपरदगी
ये क्या ज़रूर है के अब अंगड़ाइयाँ भी हों
*मौज-ए-सुपरदगी=ख़ुद को सौंपने की इच्छा

हर हुस्न-ए-सादा लौ न दिल में उतर सका
कुछ तो मिज़ाज-ए-यार में गहराइयाँ भी हों
*हुस्न-ए-सादा लौ=सदा दिल

दुनिया के तज़किरे तो तबियत ही ले बुझे
बात उस की हो तो फिर सुख़न आराइयाँ भी हों
*तज़किरे=बात बनाने की कला; सुख़न आराइयाँ= किस्से

पहले पहल का इश्क़ अभी याद है "फ़राज़"
दिल ख़ुद ये चाहता है के रुस्वाइयाँ भी हों
*रुस्वाइयाँ=बदनामियाँ

~ अहमद फ़राज़

   May 11, 2012| e-kavya.blogspot.com
   Submitted by: Ashok Singh

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