मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख
आलम में जिसकी धूप थी उस शाहकार पर
दीमक ने जो लिखे कभी वो तब्सिरे भी देख
शाहकार: कृति, तब्सिरे: समीक्षाएं
बिछती थीं जिसकी राह में फूलों की चादरें
अब उसकी ख़ाक घास के पैरों तले भी देख
~ शकेब जलाली
Jun 23, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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