Disable Copy Text

Friday, April 3, 2015

लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है



इक लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिले-आशिक फैले तो ज़माना है

क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है

वो हुस्नो-जमाल उनका, ये इश्क़ो-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का बहाना है

अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है

ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरया है और डूब के जाना है

आंसू तो बहोत से हैं, आंखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है

~ 'जिगर' मुरादाबादी


  Jun 24, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

No comments:

Post a Comment