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Wednesday, April 1, 2015

ये गीत क्या मैं गा सकूँगा




प्यार के दो बोल लिख भी दूँ अगर इन चिट्ठियों में,
प्यार की भाषा तुम्हें मैं, क्या भला समझा सकूँगा?
ज़िन्दगी की आँधियों में काँपते हों जब अधर ये,
प्यार के रस में सने, ये गीत क्या मैं गा सकूँगा?

अब तो साजो-सोज़ की ख़्वाहिश नहीं कोई बची है,
सीधे सादे प्यार की दो बात ही तुमको सुना दूँ।
सामने तुमको बिठाकर गीत जो हमने रचा था,
दूर तेरी याद में, वह गीत फिर से गुनगुना दूँ।

वे तो फागुन की लहर में खिल उठे थे गीत मेरे,
आज सावन की तपिश में क्या उन्हें मैं गा सकूँगा?
प्यार के दो बोल लिख भी दूँ अगर इन चिट्ठियों में
प्यार की भाषा तुम्हें मैं, क्या भला समझा सकूँगा?

जब गुलाबों ने गुज़ारिश की थी कि वे लिपट जायें
और थोड़े रंग ले लें, वे तुम्हारे आँचलों से,
रात की रानी ने चाहा था चुरा ले मधुर-मादक,
गंध तेरी गात से, मदिरा नयन के काजलों से।

सभी मौसम फागुनी थे, जब हमारी ज़िन्दगी में,
सभी सीधे रास्ते थे ज़िन्दगी की मंज़िलों के।
गुत्थियाँ जो उलझती जा रहीं निशि-दिन ज़िन्दगी की,
सीधा-सादा आदमी मैं, क्या उन्हें सुलझा सकूँगा?

ज़िन्दगी की आँधियों में काँपते हों जब अधर ये,
प्यार के रस में सने, ये गीत क्या मैं गा सकूँगा।

~ सुरेन्द्रनाथ तिवारी


  Nov 25, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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