
इतने भी तन्हा थे दिल के कब दरवाज़े
इक दस्तक को तरस रहे हैं अब दरवाज़े
कोई जा कर किससे अपना दु:ख सुख बाँटे
कौन खुले रखता है दिल के अब दरवाज़े
अहले सियासत ने कैसा तामीर किया घर
कोना कोना बेहंगम, बेढब दरवाज़े
*बेहंगम=बेडौल
एक ज़माना यह भी था देहात में सुख का
लोग खुले रखते थे घर के सब दरवाज़े
एक ज़माना यह भी है ग़ैरों के डर का
दस्तक पर भी खुलते नहीं हैं अब दरवाज़े
ख़लवत में भी दिल की बात न दिल से कहना
दीवारें रखती हैं कान और लब दरवाज़े
*ख़लवत=एकान्त
फ़रियादी अब लाख हिलाएँ ज़ंजीरों को
आज के शाहों के कब खुलते हैं दरवाज़े
शहरों में घर बंगले बेशक आली शाँ हैं
लेकिन रूखे फीके बेहिस सब दरवाज़े
*बे-हिस=स्तब्ध, सुन्न
कोई भी एहसास का झोंका लौट न जाए
'शौक़', खुले रखता हूँ दिल के सब दरवाज़े.
~ सुरेश चन्द्र शौक़
Aug 19, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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