
चल पड़ा दरिया तो पीछे-पीछे बहकर आ गये,
खुद को जो पर्वत समझते थे जमीं पर आ गये।
एक ही नारे से बेबस हो गये अम्नो अमाँ।
एक ही पिंजड़े में सब के सब कबूतर आ गये।
मिल गया मुझको कबीरा की तरफदारी का फल,
मेरे आँगन में हर इक मजहब के पत्थर आ गये।
क्या सफर तहजीब का बेकार साबित हो गया।
क्या जहाँ से हम चले थे फिर वहीं पर आ गये।
क्या बतायें रास्ता कैसा था वो मंजिल थी क्या?
बस ये समझो शुक्र है हम लौट कर घर आ गये।
साथ उठना बैठना यूँ ही नही चलता ‘नदीम’,
वो उठा तो हम भी उस महफिल से बाहर आ गये।
~ ओम प्रकाश 'नदीम'
Aug 18, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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