दुलहिनों के भाल चिपकी बेंदियाँ अच्छी लगीं
फूल से लिपटी हुई ये तितलियाँ अच्छी लगीं
आज तेरा नाम जैसे ही लिया वो रुक गईं
आज सच पूछो तो अपनी हिचकियाँ अच्छी लगीं
जब से मैं गिनने लगा इन पर तेरे आने के दिन
बस तभी से मुझको अपनी उँगलियाँ अच्छी लगीं
तीज के त्योहार पर वो मांग भरती दुल्हनें
और वो मेंहदी रचाती लड़कियां अच्छी लगीं
जिनके साये में बनाए बुलबुलों ने घोंसले
वो सभी शाखेँ वो सारी पत्तियाँ अच्छी लगीं
बंद आँखों सी किसी के ध्यान में डूबी हुईं
धीरे धीरे जो खुलीं वो खिड़कियाँ अच्छी लगीं
फूल जैसे सुर्ख होठों के निशां देने के बाद
उसने जो रख लीं वो सारी चिट्ठियाँ अच्छी लगीं
प्यास के मिटते ही ये क्या है कि मिट जाता है प्यार
जब बढ़ीं नज़दीकियाँ तो दूरियाँ अच्छी लगीं
~ कुँवर बेचैन
Aug 7, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
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