
कभी मोम बन के पिघल गया
कभी गिरते गिरते संभल गया
वो बन के लम्हा गुरेज का
मेरे पास से निकल गया
उसे रोकता भी तो किस तरह
कि वो शख्स इतना अजीब था
कभी तड़प उठा मेरी आह से
कभी अश्क से न पिघल सका
सर-ए-राह मिला वो अगर कभी
तो नज़र चुरा के गुज़र गया
वो उतर गया मेरी आँख से
मेरे दिल से क्यों न उतर सका
वो चला गया जहां छोड़ के
मैं वहा से फिर न पलट सका
वो संभल गया था फ़राज़ मगर
मै बिखर के फिर न सिमट सका
~ अहमद फ़राज़
Aug 22, 2012| e-kavya.blogspot.com
Submitted by: Ashok Singh
No comments:
Post a Comment