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Wednesday, April 1, 2015

वफ़ा जो मुझ को रास आई नहीं है



वफ़ा जो मुझ को रास आई नहीं है
तिरी क्या इस में रुसवाई नहीं है

पसारूँ हाथ क्या दाता के आगे
जो माँगी है वो शय पाई नहीं है

मुहब्बत की कोई कीमत नहीं तय
ये शय बाज़ार में आई नहीं है

परत अन्दर परत है याद तेरी
ये पानी पर जमी काई नहीं है

तस्सवुर का लगा है रोग जब से
मिरी तन्हाई तन्हाई नहीं है

शनासाई किसी से क्या करेगा
जिसे ख़ुद से शनासाई नहीं है
शनासाई=जान पहचान

तुझे सूरज की सच्चाई पे शक है
तिरी आँखों में बीनाई नहीं है
बीनाई=दृष्टि क्षमता

जो आकर मौत मुझ से छीन लेगी
हयात ऐसा तो कुछ लाई नहीं है
हयात=life

अभी इतरा लो ऐ काली घटाओ!
अभी वो ज़ुल्फ़ लहराई नहीं है

ज़बां की चोट से तोड़ा है दिल को
अब आसाँ इस की भरपाई नहीं है

मैं क्यूँ “सीमाब” उस को भूल जाऊँ
क़सम ऐसी कोई खाई नहीं है

~ सीमाब सुल्तानपुरी


  Nov 8, 2012| e-kavya.blogspot.com
  Submitted by: Ashok Singh

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